परिंदा

एक परिंदा, सपनो से भरपूर
अपने घर से उड़ चला वो दूर
यहां था न उसका कोई अपना
सिर्फ था वो, और उसका एक सपना

अलग अलग दिशा में वो भटका
हर नए दिन एक नयी दाल से जा लटका
भाई ना उसको नयी देश की हवा
यहां का पानी भी लगता था उसे कड़वा

बहुत ढूंढ़ने पर भी उसे मिली ना मंज़िल
धीरे धीरे वो खुद से हारा, रहा ना स्वपनिल
भूल गया वो अपना ही सपना
रास ना आया उसे अपनों के बिना भटकना

मन हुआ हताश, पर ज़माने ने उसे किया मजबूर
अपने ही जीवन का बन गया वो मज़दूर
उड़ता रहा भटकता रहा बिना समझे क्यों
आखिर उसे लगा, जियूं तो जियूं क्यों

एक झील किनारे जा वो रुका
झील में खुद की ही परछाई पहचान ना सका
अपने आप को अंजान समझ कर दिया वो हमला
डूबने से पहले समझ तो गया था, पर ना वो संभला

एक परिंदा, सपनो से भरपूर
अपने घर से उड़ चला वो दूर

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